Meghdoot

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By Kalidas

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मेघदूतम् महाकवि कालिदास द्वारा रचित विख्यात दूतकाव्य है। इसमें एक यक्ष की कथा है जिसे कुबेर अलकापुरी से निष्कासित कर देता है। निष्कासित यक्ष रामगिरि पर्वत पर निवास करता है। वर्षा ऋतु में उसे अपनी प्रेमिका की याद सताने लगती है। कामार्त यक्ष सोचता है कि किसी भी तरह से उसका अल्कापुरी लौटना संभव नहीं है, इसलिए वह प्रेमिका तक अपना संदेश दूत के माध्यम से भेजने का निश्चय करता है। अकेलेपन का जीवन गुजार रहे यक्ष को कोई संदेशवाहक भी नहीं मिलता है, इसलिए उसने मेघ के माध्यम से अपना संदेश विरहाकुल प्रेमिका तक भेजने की बात सोची। इस प्रकार आषाढ़ के प्रथम दिन आकाश पर उमड़ते मेघों ने कालिदास की कल्पना के साथ मिलकर एक अनन्य कृति की रचना कर दी।

मेघदूतम् काव्य दो खंडों में विभक्त है। पूर्वमेघ में यक्ष बादल को रामगिरि से अलकापुरी तक के रास्ते का विवरण देता है और उत्तरमेघ में यक्ष का यह प्रसिद्ध विरहदग्ध संदेश है जिसमें कालिदास ने प्रेमीहृदय की भावना को उड़ेल दिया है।

————————————

पूर्वमेघ

1

कश्चित्‍कान्‍ताविरहगुरुणा स्‍वाधिकारात्‍प्रमत:

शापेनास्‍तग्‍ड:मितमहिमा वर्षभोग्‍येण भर्तु:।

यक्षश्‍चक्रे जनकतनयास्‍नानपुण्‍योदकेषु

स्निग्‍धच्‍छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

कोई यक्ष था। वह अपने काम में असावधान

हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि

वर्ष-भर पत्‍नी का भारी विरह सहो। इससे

उसकी महिमा ढल गई। उसने रामगिरि के

आश्रमों में बस्‍ती बनाई जहाँ घने छायादार

पेड़ थे और जहाँ सीता जी के स्‍नानों द्वारा

पवित्र हुए जल-कुंड भरे थे।

2

तस्मिन्‍नद्रो कतिचिदबलाविप्रयुक्‍त: स कामी

नीत्‍वा मासान्‍कनकवलयभ्रंशरिक्‍त प्रकोष्‍ठ:

आषाढस्‍य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्‍टसानु

वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।

स्‍त्री के विछोह में कामी यक्ष ने उस पर्वत

पर कई मास बिता दिए। उसकी कलाई

सुनहले कंगन के खिसक जाने से सूनी

दीखने लगी। आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की

चोटी पर झुके हुए मेघ को उसने देखा तो

ऐसा जान पड़ा जैसे ढूसा मारने में मगन

कोई हाथी हो।

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