Swami Dayananda Saraswati

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By Shasikant

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उन्नीसवीं शताब्दी के महान समाज-सुधारकों में स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम अत्यंत श्रध्दा के साथ लिया जाता है. जिस समय भारत में चारों ओर पाखंड और मुर्ति-पूजा का बोल-बाला था, स्वामी जी ने इसके खिलाफ आवाज उठाई. उन्होंने भारत में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए 1876 में हरिव्दार के कुंभ मेले के अवसर पर पाखण्डखंडिनी पताका फहराकर पोंगा-पंथियों को चुनौती दी. उन्होंने फिर से वेद की महिमा की स्थापना की. उन्होंने एक ऐसे समाज की स्थापना की जिसके विचार सुधारवादी और प्रगतिशील थे,जिसे उन्होंने आर्यसमाज के नाम से पुकारा.<br>स्वामी दयानंद जी का कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता. स्वामी जी महान राष्ट्र-भक्त और समाज-सुधारक थे. समाज-सुधार के संबंध में गांधी जी ने भी उनके अनेक कार्यक्रमों को स्वीकार किया. कहा जाता है कि 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में भी स्वामी जी ने राष्ट्र के लिए जो कार्य किया वह राष्ट्र के कर्णधारों के लिए सदैव मार्गदर्शन का काम करता रहेगा. स्वामी जी ने विष देने वाले व्यक्ति को भी क्षमा कर दिया, यह बात उनकी दया भावना का जीता-जागता प्रमाण है।


विचार:

  • ये 'शरीर' 'नश्वर' है, हमे इस शरीर के जरीए सिर्फ एक मौका मिला है, खुद को साबित करने का कि, 'मनुष्यता' और 'आत्मविवेक' क्या है।<br>
  • वेदों मे वर्णीत सार का पान करनेवाले ही ये जान सकते हैं कि 'जिन्दगी' का मूल बिन्दु क्या है।
  • क्रोध का भोजन 'विवेक' है, अतः इससे बचके रहना चाहिए। क्योकी 'विवेक' नष्ट हो जाने पर, सब कुछ नष्ट हो जाता है।
  • अहंकार' एक मनुष्य के अन्दर वो स्थित लाती है, जब वह 'आत्मबल' और 'आत्मज्ञान' को खो देता है।
  • ईष्या से मनुष्य को हमेशा दूर रहना चाहिए। क्योकि ये 'मनुष्य' को अन्दर ही अन्दर जलाती रहती है और पथ से भटकाकर पथ भ्रष्ट कर देती है।
  • अगर 'मनुष्य' का मन 'शाँन्त' है, 'चित्त' प्रसन्न है, ह्रदय 'हर्षित' है, तो निश्चय ही ये अच्छे कर्मो का 'फल' है।

  • Swami Dayananda Saraswati