बासी फूल

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By डॉ. तारा सिंह

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'बासी फूल' मानवीय मूल्यों से जुड़ी, दो प्रेमियों की कथा, व्यथा है| हमारी भारतीय समाज की जीवन शैली का प्रतिबिम्ब है| यह उपन्यास, बाल-विवाह और उससे उपजे उत्पीडन की कहानी है, जो वैदिक काल से ही हमारे समाज में चली आ रही है| नारी को देवी, श्रद्धा, अबला जैसे सम्बन्धों से संबोधित कर, उसे अबला के रूप में मात्र भोग्या और चल-संपत्ति समझ लिया| उसे एक निरीह पशु मानकर, जब मर्जी, चाहे शैशव अवस्था में ही क्यों न हो, उसके भाग्य की डोर, जिस-तिस को पकड़ा दिया जाता है| चूँकि शैशव अवस्था में बालक और बालिकाएं, दोनों ही पूर्णतया अबोध रहते हैं, इसलिये वे विवाह संस्कार का विरोध भी नहीं कर पाते| कारण जो भी हो, पर बाल-विवाह, हमारे समाज का एक गलित कोढ़ है|
'बासी फूल' की नायिका पुष्पा, एक बेहद गरीब परिवार में जन्मी, पली, युवती है| उसके तथा उसके परिवार का, ज़िंदा रहने का एकमात्र अवलंब है, घास| वह घास काटकर नित बाजार में ले जाकर बेचती थी, और उससे मिले पैसों से अपना और अपने बूढ़े माँ-बाप की पेट भरती थी| मगर ऊपरवाले का उपहास देखिये, जिसके पास पेट की रोटी की व्यवस्था नहीं दिया, उसे रूप-रंग से इतना धनवान बनाया, कि देखने वाला देखता रह जाय, मानो कोई पुरानी देवकथा की पात्री हो|
पुष्पा जब छ: साल की बालिका थी| तभी उसके माँ-बाप ने, उसका विवाह कर दिया| मगर विधि का विधान कौन टाल सकता है? जब वह आठ साल की हुई, उसके पति का किसी कारण स्वर्गवास हो गया| इन सब बातों से अनभिग्य पुष्पा बड़ी होती गई| जब वह जवान हुई, उसका यौवन भदवी नदी के सामान उमड़ने लगा| वह हिरणी की तरह, चहल-पहल करने लगी| तब उसकी माँ ने उसे बताया, बेटा, तुम्हारा यह व्यवहार ठीक नहीं है, तुम एक विधवा हो| तुम्हारी शादी हो चुकी है, मगर तुम्हारे पति बे-समय दुनिया को छोड़कर चले गए|यह सुनकर वह सन्न रह गई| तब से वह मौन रहने लगी| एक दिन चाँदनी रात का सबेरा था| अभी चंद्रमा में फीका प्रकाश बाकी था| पुष्पा नदी के किनारे-किनारे चलती चली जा रही थी, कि अचानक उसके कदम रूक गए| उसे लगा, कोई उससे कह रहा है, इतना सबेरे? पुष्पा गर्दन घुमाकर पीछे की और देखी, तो शर्म और डर से सिहर गई| देखी, एक 20-22 साल का लड़का शिला पर लेटा हुआ था| उससे उसकी आँखें मिल गईं| उसने कुछ कठोरजबाव से कहा, 'घास लेने' जा रही हूँ, पर आपको इससे मतलब? उस पहली मुलाक़ात में ही पुष्पा के सूखे वृक्ष की टहनी में जान पड़ गई| उसके मन में हरी-हरी पत्तियां निकल आईं| उसका शुष्क, नीरस जीवन सरस और सजीव होने लगा| जीवन निरर्थक नहीं, सार्थक दीखने लगा|
मगर शीघ्र ही उसके मनोभावों का हरण हो गया, जब उसे याद आई, कि मैं एक विधवा हूँ, मुझे कोई अधिकार नहीं, कि मैं किसी पर-पुरुष से प्यार करूँ?
मगर सच्चा प्यार रूकता कहाँ है? वह तो नदी की वो धारा है, कि जब तक वह समुद्र जाकर मिल नहीं लेती, पहाड़, पत्थर सब पार करती, गिरती और बजरती; बिना थके, बिना हारे चलती जाती है|
सामाजिक विघ्न-बाधाओं के बावजूद दोनों के मिलने का सिलसिला चलता रहा| जब प्यार का पानी, सर से ऊपर जाने लगा, तब पुष्पा ने कहा, 'देवव्रत बाबू! मैं एक विधवा हूँ, आप मुझसे मिलना छोड़ दीजिये| एक विधवा को किसी से प्यार करने का हक़ नहीं है| भले ही मुझे याद नहीं, मेरा पति कौन था, और मेरा विवाह कब हुआ?' मान कहती है, जब मैं छ: साल की थी, तभी मेरा विवाह कर दिया गया था, और आठ साल की उम्र में विधवा हो गई|
देवव्रत, पुष्पा की बात को अनसुनाकर कहा, 'विवाह और संस्कार सब दिखाबा है| संस्कृत के चार अक्षर पढ़ लेने से कुछ नहीं होता|मंत्रोच्चारण कर विवाह करने के बावजूद भी तो शादियाँ टूटती हैं| रही बात, विधवा होने की, जिसे तुमने देखा नहीं, छूआ नहीं, वह पति कैसा? यह सब हमारे समाज द्वारा बनाए नियम हैं| हमारा समाज विधुर होकर, भी एक बार नहीं, दो बार नहीं, चार बार भी शादी कर लेता है| मगर, एक अबला को मूक और वधिर मानकर जब जी में जो आता है| उस पर कानून लाद देता है, जिसे मैं नहीं मानता| मैंने तुमको चाहा है, चाहता रहूँगा, और एक दिन विवाह कर पुष्पा को अपने घर ले आता है|
मेरी समझ से जीवन में उतना सार भी नहीं: साँस का भरोसा ही क्या और इसी नश्वरता पर हम इच्छाओं के कितने बड़े-बड़े किले बनाते हैं| नहीं जानते, नीचे जाने वाली साँस ऊपर आएगी या नहीं| पर सोचते इतनी दूर की हैं, मानो हम अमर हैं| जिसके ऊपर पड़ती है, वही जानता है| वैधव्य जीवन क्या होता है? अगर हम और हमारा समाज कल्याणी की इस मानसिक यातना का...

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